ताज्या घडामोडी

मालियों! माली माली मत करो! ओबीसी बनो!

मालियों! माली माली मत करो! ओबीसी बनो!

Akluj Vaibhav News Network.

🔰 संकलन : भाग्यवंत लक्ष्मणराव नायकुडे

अकलूज दिनांक 16/07/2024 :

(पूर्वार्ध और उत्तरार्ध एक साथ पढ़ें!)

माली राजकीय मिशन नाम से संगठन बनाकर उन्होंने 2024 में 4 सांसद व 40 विधायक माली जाति से चुनकर लाने का लक्ष्य रखा है।
सबसे पहले साफ कर दूं कि मेरा जाति संगठन का कतई विरोध नहीं है क्योंकि जाति अपने आप में नाते रिश्तेदारों की एक संगठन ही होती है इसलिए जब तक जाति है तब तक जाति संगठन रहेंगे ही, किन्तु जब कोई जाति संगठन सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने का इच्छुक होता है तब इस जाति संगठन का स्वरूप कैसा होना चाहिए? ध्येय व लक्ष्य कौन से होने चाहिए?उसके लिए कौन सी विचारधारा स्वीकार करनी चाहिए? रणनीति व कृति कार्यक्रम क्या होना चाहिए इसका गहराई से अध्ययन करके, विचार विमर्श करके निर्णय लेना चाहिए।
जाति के नाम पर संगठन बनाना व एकाध कार्यक्रम करने के लिए ज्यादा कुछ कष्ट उठाने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि जाति का प्रत्येक कार्यक्रम यह “वर वधू सूचक” सम्मेलन से ज्यादा गंभीरता से कोई लेता नहीं।
जाति का बैनर लगते ही 100-150 लोग सहज ही जमा हो जाते हैं, एक दूसरे से पहचान बढ़ाते हैं, पुरानी पहचान अपडेट करते हैं, किसकी लड़की की शादी कहां हुई, किसकी शादी जम नहीं रही है, किसका तलाक हो गया, किसका लड़का शादी योग्य हो गया है जैसी सारी जानकारी निकालकर हमारी भी लड़की शादी योग्य हो गई है यह बात दो चार लोगों के कान में डालकर भोजन होने के बाद लोग ऐसे कार्यक्रमों से निकलकर घर जाते हैं और चद्दर तानकर सो जाते हैं।
भोजन के बाद 30-35 लोग भी नहीं बचते। मैं बीते 40-42 सालों से सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहा हूं। अलग अलग अनेक जातियों के कार्यक्रमों में मुझे मार्गदर्शक – वक्ता के रूप में निमंत्रित करने के कारण जातियों के कार्यक्रम कैसे होते हैं इसका मुझे अच्छा अनुभव है।
जाति का कार्यक्रम करने के लिए किसी विचारधारा के अभ्यास की जरूरत नहीं पड़ती, *किंतु किसी जाति को संगठित रूप से व्यापार,शिक्षण, राजनीति, समाज नीति जैसे विविध क्षेत्रों में जाना होता है तो उन्हें गहन अध्ययन व अभ्यास करके ही काम करना होता है।
यह मुद्दा और स्पष्ट हो सके इसके लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण देता हूं –
1917-18 में स्वतंत्रता आंदोलन की हलचल से अंग्रेजों ने कुछ सुधार लाया जिसके अनुसार जनता के हाथ में कुछ मात्रा में सत्ता देने हेतु विधान सभा निर्मित करना तय हुआ। इस विधानसभा में जनता के बीच से विधायक चुनकर देना था। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन करने वाली कांग्रेस पार्टी पर ब्राह्मणों का वर्चस्व था वे जनता के नेता के रूप में लोकप्रिय थे। इसलिए विधानसभा में बड़ी संख्या में ब्राह्मण विधायक ही चुनकर आयेंगे इसमें कोई शंका नहीं थी। चुनाव मतलब राजनीति व राजनीति मतलब सत्ता – संपत्ति – प्रतिष्ठा, यह समीकरण मराठा समाज के ध्यान में आया और वे भी चुनाव की तैयारी में जुट गए।
उन्होंने ताबड़तोड़ जाति का संगठन “मराठा लीग” की स्थापना की। परंतु सिर्फ जाति का संगठन बनाने से कोई फायदा नहीं, क्योंकि तिलक की अपार लोकप्रियता के सामने मराठों का टिकना मुश्किल है यह बात कुछ मराठा विद्वानों ने उनके ध्यान में लाया। इसलिए मराठा समाज ने चुनकर आने के लिए राजनीतिक आरक्षण की मांग की। उसके बाद दैनिक ‘केसरी’ के माध्यम से तिलक गरजे, कुनबटों (कुनबियों) को असेंबली में जाकर हल चलाना है क्या?”
तिलक की इस भभकी से मराठे तात्कालिक रूप से थोड़ा हड़बड़ाए।
ब्राह्मणों ने जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन में घुसकर अपना वर्चस्व कायम किया उसी प्रकार हमें भी किसी आंदोलन से जुड़कर राजनीतिक वर्चस्व निर्माण करना पड़ेगा यह बात मराठा समाज के ध्यान में आते ही विकल्प की तलाश शुरू हुई।
उस समय तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले का सत्यशोधक आंदोलन जनमानस में काफी लोकप्रिय था मराठों ने सत्यशोधक आंदोलन में शामिल होकर अपना सामाजिक वजन बढ़ाया एवं सत्यशोधक आंदोलन को ही ब्राह्मणेतर पार्टी बनाकर अपना राजनीतिक वर्चस्व भी निर्मित किया यह बात ध्यान में आने पर कि ब्राह्मणेतर पार्टी के कारण हम सिर्फ विधायक ही बन पायेंगे किंतु सत्ता सिर्फ कांग्रेसी ब्राह्मणों के कब्जे में रहेगी, इस पर विचार करने के बाद मराठा समाज ने कांग्रेस में जाने का निर्णय लिया।
कांग्रेस गांधी जी के कारण सर्वधर्मीय व सर्वजातीय होने के कारण देश की एक बहुत बड़ी व मजबूत वोटबैंक बन चुकी थी ऐसा मजबूत वोटबैंक कब्जे में आने के बाद मराठे महाराष्ट्र में सत्ताधारी हुए।
केवल मराठा – मराठा करते बैठे रहे होते तो उनके 1-2 विधायक भी चुना जाना संभव न हुआ होता।
माली समाज माली माली करते रहा तो माली समाज का एक भी सांसद चुनकर नहीं आ पायेगा। जाति व्यवस्था में एक जाति का अनुकरण दूसरी जाति तुरंत करती है।
मालियों ने माली – माली किया तो धोबी जाति भी धोबी -धोबी करेगी, तेली जाति भी तेली -तेली करेगी, फिर तुम्हारे माली को मतदान कौन करेगा? और तुम्हारा माली सांसद कैसे बनेगा?
माली राजकीय मिशन का ध्येय व लक्ष्य एक ही है कि माली व्यक्ति चुनकर आना चाहिए,चाहे वह किसी भी पार्टी से हो! यह ध्येय तो अत्यधिक घातक है यह तो अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
क्योंकि अभी प्रस्थापित पार्टियों की तरफ से जो बड़ी संख्या में विधायक सांसद चुनकर आते हैं वे सभी पार्टियां मराठा व ब्राह्मणों की मालिकी की हैं।
तुमने कांग्रेस अथवा राष्ट्र वादी कांग्रेस के टिकट पर खड़े माली को चुनकर भेजा तो वह मराठा समाज की ही राजनीति मजबूत करेगा, राष्ट्र वादी कांग्रेस के सांसद अमोल कोल्हे माली हैं मराठा समाज को ओबीसी में से आरक्षण देने की मांग इस माली सांसद ने की क्योंकि वह पार्टी मराठों की है उस पार्टी के सभी सांसद विधायक मराठा समाज के हित के लिए काम करेंगे ओबीसी या माली गड्ढे में जाए तो भी चलेगा किंतु मराठों का भला होना चाहिए, ऐसा ही विचार कोल्हे जैसे माली सांसद करेंगे। कांग्रेस व राष्ट्र वादी कांग्रेस के कितने भी माली चुनकर भेज दो फिर भी वित्तमंत्री व उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ही बनेंगे। अजीत पवार वित्तमंत्री बनने के बाद ओबीसी का इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करने के लिए निधि नहीं देते जिसके कारण ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण खत्म हुआ, अजीत पवार ने ओबीसी – भटकी जातियों का प्रमोशन में आरक्षण खत्म कर दिया। ओबीसी के ‘महाज्योति’ का 125 करोड़ रूपए अजीत पवार ने निकालकर मराठों के ‘सारथी’ को दे दिया।
इतना बड़ा अन्याय होने के बाद भी माली – ओबीसी जाति का एक भी सांसद विधायक अजीत पवार के विरोध में नहीं बोल सका, माली – ओबीसी जाति को गड्ढे में डालने वाले ऐसे ही नपुंसक माली विधायक तुम चुनकर देने वाले हो क्या?
भाजपा के टिकट पर खड़े माली सांसद – विधायक तुमने चुनकर दिया तो माली – ओबीसी और ज्यादा गड्ढे में जायेगा। भाजपा में कितने भी माली विधायक चुनकर आएं तो भी मुख्यमंत्री या तो ब्राह्मण अथवा मराठा बनेगा।
इसी फडणवीस ने 2016 से 2019 के दरम्यान सत्ता में रहते हुए ओबीसी का इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करने में टालमटोल किया जिसके कारण ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण खत्म हुआ। भाजपा, कांग्रेस, शिवसेना, राष्ट्र वादी कांग्रेस मनसे जैसी पार्टियों से कितने भी माली विधायक चुनकर दो फिर भी माली समाज गड्ढे में ही जायेगा।
सत्ता पाने के लिए मराठा समाज पहले ‘सत्यशोधक’ बना और बाद में कांग्रेस में जाकर बहुजन बना।*
बहुजन समाज की सभी जातियों ने मराठों को बड़ा भाई माना, जिसके कारण मराठा महाराष्ट्र में कम से कम 50 साल तक सत्ता में रहे।
आज ओबीसी आंदोलन के माध्यम से माली जाति के लिए बड़ा अवसर चलकर आया है। समस्त ओबीसी समाज माली जाति को बड़ा भाई मानता है।ऐसी परिस्थिति में मालियों को इस ओबीसी आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए, ओबीसी संगठन में काम करना चाहिए इस संगठन को फुले, साहू अंबेडकरवादी विचारों का मजबूत आधार होना चाहिए। ऐसे संगठन के साथ राजनीति में उतरें तभी बड़ी संख्या में ओबीसी समाज के सांसद विधायक चुनकर आयेंगे और माली समाज सहित अन्य ओबीसी जातियों का भी भला करेंगे, उसके लिए 52% ओबीसी की स्वतंत्र पार्टी का निर्माण करो।
दो पर्सेंट जनसंख्या वाले बौद्ध समाज की राजनीतिक पार्टी है, साढ़े तीन पर्सेंट जनसंख्या वाले ब्राह्मणों की राजनीतिक पार्टी हैं 5-6 पर्सेंट जनसंख्या वाले मराठों की पार्टी है फिर 8-10 पर्सेंट माली व 52% ओबीसी की राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं हो सकती?
हम “ओबीसी राजकीय आघाड़ी” नाम से पार्टी की स्थापना कर रहे हैं। माली -ओबीसी समाज के प्रमाणिक कार्यकर्ता इस पार्टी में शामिल होकर काम करें तो हम निश्चित रूप से सत्ताधारी बन सकते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है यह काम कैसे करना है इसकी रूपरेखा विस्तारपूर्वक कल लेख के उत्तरार्ध में पढ़ें! तब तक के लिए जय ज्योति, जय भीम व सत्य की जय हो!

(उत्तरार्ध)
माली राजकीय मिशन नाम से संगठन का एक वाट्स एप ग्रुप है। इस ग्रुप के कमेंंट्स में एक कामन मुद्दा बारंबार पढ़ने को मिलेगा वह यह कि — *’माली समाज महाराष्ट्र में संख्या में दो नंबर पर है फिर भी माली समाज का राजनीति और सत्ता में स्थान नहीं है। संख्या के अनुपात में न विधायक हैं और न ही मंत्री ‘।
इस मुद्दे पर मैं अनेक बार लिखा हूं बोला हूं। लोकतंत्र में संख्या के आधार पर सत्ता मिलती रहती है क्या?”जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी ” ऐसा कांशीराम साहब ने नारा दिया था। किंतु यह सत्य है क्या? लोकतंत्र में सिर्फ सिर गिने जाते हैं यह सत्य है तो भी इन सिरों के अंदर कौन से विचार भरे हुए हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
यदि ऐसा नहीं होता तो साढ़े तीन पर्सेंट ब्राह्मणों की पार्टी भाजपा 300 सांसद लेकर दिल्ली की सत्ता पर न बैठी होती और 85% जनसंख्या की ‘बहुजन समाज पार्टी ‘ सिर्फ दस सांसदों तक न रह गई होती।52% ओबीसी की अनेक पार्टियां देश में हैं। लालू, मुलायम की पार्टियां तो शुद्ध ओबीसी की पार्टियां कही जाती हैं किन्तु इन पार्टियों की सत्ता दिल्ली में तो छोड़िए अब राज्यों में भी नहीं आ पा रही है।
सत्ता यह किसी जाति धर्म के कारण नहीं मिलती, बल्कि विचार- तत्वज्ञान के आधार पर मिलती है।
बाल गंगाधर तिलक ये अनेक ब्राह्मण कार्यकर्ताओं को साथ में लेकर कांग्रेस में गए। कांग्रेस को उन्होंने वेदांती ब्राह्मणी – हिंदू तत्वज्ञान का आधार दिया। चुटिया जनेऊ का ब्राह्मणी हिन्दू विचारों को लेकर उन्होंने कांग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन चलाया।इन विचारों का उन्होंने भरपूर प्रचार प्रसार किया उसके लिए उन्होंने ‘गीता रहस्य ‘ नाम का ग्रंथ लिखा। चुटिया जनेऊ वाले हिन्दुत्व का विरोध करने वाले सुधारकों को उन्होंने निकाल बाहर किया। समाज सुधारक रानाडे के सामाजिक परिषद का मंडप उन्होंने राकेल डालकर जला डाला। तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक आंदोलन का उन्होंने कड़ा विरोध किया। चुटिया जनेऊ वाला ब्राह्मणी हिन्दुत्व गली मुहल्ले तक के लोगों के सिर में घुसना चाहिए इसके लिए उन्होंने गणेशोत्सव शुरू किया। तिलक व उनके शिष्यों ने प्रचंड मेहनत करके ब्राह्मणी हिन्दुत्व का विचार जनता के मन मस्तिष्क में भरा। तिलक के बाद गांधीजी आए । उनको भी कांग्रेस का नेता बनने के लिए चुटिया जनेऊ वाला हिन्दुत्व स्वीकार करना पड़ा। सत्यशोधक बने हुए मराठा नेता जब कांग्रेस में गए तब इन मराठों को भी चुटिया जनेऊ का ब्राह्मणी हिन्दुत्व स्वीकार करना पड़ा।
कांग्रेस की ब्राह्मणी लहर में फुले साहू अंबेडकरी आंदोलन कहीं का कहीं बह गया।
इस देश पर कम से कम पचास वर्षों तक कांग्रेसी ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता थी, इसी सत्ता के दम पर वे बाबा साहेब अंबेडकर का चुनाव में पराभव कर सके, 52% ओबीसी के कालेलकर आयोग, मंडल आयोग को दबा सके, दलितों पर निरंतर बेहिचक अत्याचार कर सके, हिन्दू – मुस्लिम दंगे करवाकर मुस्लिमों की हत्या कर सके, इतनी बड़ी व प्रचंड ताकत तत्वज्ञान – विचारधारा में होती है।
*किंतु अपने माली – ओबीसी को यह विचारधारा – सिद्धांत वगैरह कुछ मालूम नहीं होता। बस जाति के सिर गिनना और उसके आधार पर सत्ता व आरक्षण की भीख मांगना।
इस देश पर 75% दलित – आदिवासी – ओबीसी की सत्ता आए इसके लिए फुले शाहू अंबेडकर ने विचार दिया, तत्वज्ञान दिया व आंदोलन भी खड़ा किया किंतु हम उनकी विचारधारा छोड़कर जाति की मुंडी गिनते बैठे हैं।
हम जिन महापुरुषों को अपना आदर्श मानते हैं उन फुले अंबेडकर ने कभी जाति की मुंडी गिना क्या? उन्होंने कभी जाति का संगठन बनाया क्या? तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले ने माली समाज संगठन बनाने के बजाय सत्यशोधक समाज संगठन का निर्माण किया। इस सत्यशोधक समाज में ब्राह्मण से लेकर तेली, माली, मांग,महार व मुसलमान भी सदस्य व पदाधिकारी थे।
तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले के शिष्य भालेराव ने जाति का संगठन बनाने के बजाय किसान संगठन बनाया,रावबहादुर नारायण मेधाजी लोखंडे ने देश का पहला कामगार संगठन बनाया, तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले के शिष्य रहे बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने महार जाति का संगठन बनाने के बजाय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन नाम से अस्पृश्य कैटेगरी का संगठन बनाया व स्वतंत्र मजूर पक्ष की स्थापना की।इन सभी संगठनों का उपयोग उन्होंने जनता के वैचारिक प्रबोधन के लिए किया। उनके इस वैचारिक प्रबोधन से उस समय एक वोटबैंक तैयार हुआ और इसी वोटबैंक के कारण स्वतंत्र मजूर पक्ष की तरफ से पहले चुनाव में ही 15 में से 13 विधायक चुनकर आए। उसमें ब्राह्मण व ओबीसी जातियों से भी विधायक चुनकर आए थे।
महापुरुषों का इतना गौरवशाली यशस्वी इतिहास रहते हुए भी हम बार बार जाती की माटी क्यों खा रहे हैं? जाति का ही व्यक्ति चुनकर आना चाहिए ऐसा आग्रह क्यों रखते हैं? अपनी जाति का ही व्यक्ति अपनी जाति का भला कर सकता है इस अंधश्रद्धा से बाहर निकलो! तभी तुम्हारी जाति का भला होगा, जाति का आदमी कुल्हाड़ी का हत्था साबित होता है एवं अपनी ही जाति का हाथ पैर काटता है।
जाति द्वारा बड़ा किया गया आदमी अपने स्वार्थ के लिए जाति को ही गड्ढे में ढकेलने में आगे पीछे नहीं देखता, यह सांसद अमोल कोल्हे ने सिद्ध किया है।
जाति के बाहर निकलने पर ही जाति का भला हो सकता है इसके बहुत सारे ऐतिहासिक उदाहरण तुम्हारे सामने हैं उनमें से दो-तीन उदाहरण देता हूं।
बिहार में 1970 के दौरान समाजवादी विचारों को स्वीकार करके वहां की ओबीसी जनता ने आंदोलन खड़ा किया उसमें से बड़ी वोटबैंक तैयार हुई वोटबैंक में यादव जाति की संख्या बड़ी थी *यदि यादव जाति ने तय किया होता तो उस समय यादव जाति का ही मुख्यमंत्री हुआ होता परन्तु यादव जाति ने अपना दिल बड़ा किया और नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया। कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री बनते ही ओबीसी आरक्षण लागू किया उससे सबसे ज्यादा फायदा यादवों का ही हुआ।
सिर्फ कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने से नाई, बढ़ई,लोहार, कुम्हार,जैसी छोटी मोटी सभी जातियां ओबीसी आंदोलन से जुड़ीं व ओबीसी का वोटबैंक मजबूत हुआ। कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री हुए , परंतु बाद के समय में यादवों ने यादव जाति की राजनीति शुरू की और वे भी अपने माली समाज की तरह यादव – यादव करने लगे यादव जाति का ही मुख्यमंत्री बनाने की शुरुआत हुई जिसके कारण ओबीसी की छोटी छोटी जातियां नाराज हुईं जिसका फायदा भाजपा ने उठाया।
यादवों का राज्य गया अभी वहां भाजपा का राज्य है। उत्तरप्रदेश का भी यही रोना धोना है।
इसके बाद दूसरा उदाहरण तमिलनाडु का है।
1925 में ब्राह्मणी कांग्रेस को लात मारकर रामास्वामी पेरियार ने सभी ब्राह्मणेतर जातियों को संगठित किया,
तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले के अब्राह्मणी सिद्धांतों को स्वीकार करके रामायण महाभारत के विरोध में प्रबोधन शुरू किया इसी आंदोलन से आगे चलकर ओबीसी के नेतृत्व में डीएमके पार्टी का निर्माण हुआ।
आज इस पार्टी की तरफ से जो मुख्यमंत्री है वह गुरव जाति (ओबीसी) का है गुरव वहां अल्पसंख्य हैं किन्तु वहां बहुसंख्य ओबीसी जाति की राजनीति नहीं करते जाति से बाहर निकलकर छोटी जातियों को बड़े पद पर चुनकर लाते हैं।
उसका परिणाम ऐसा हुआ कि वहां ओबीसी वोटबैंक मजबूत हुआ है तमिलनाडु में 50% ओबीसी को 50% आरक्षण है, उस राज्य में लोकसभा से लेकर ग्राम पंचायत तक सभी चुनावों में 72% ओबीसी चुनकर आते हैं इसलिए वहां ओबीसी वर्ग को चुनकर आने के लिए किसी प्रकार के आरक्षण की जरूरत महसूस नहीं होती।
तीसरा उदाहरण अत्यंत महत्वपूर्ण है –
भाजपा यह ब्राह्मणों की पार्टी है, उन्होंने तय किया तो वे ब्राह्मण प्रधानमंत्री बना सकते हैं किन्तु उन्होंने मालियों की तरह ब्राह्मण – ब्राह्मण नहीं किया जाति की परवाह न करते हुए नवनिर्मित ओबीसी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। जिसके कारण उसका वोटबैंक इतना मजबूत हुआ कि भाजपा के 300 सांसद चुनकर आए।
फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे भी उनका वही उद्देश्य है।
1917 में मराठा जाति ने ‘मराठा लीग’ की स्थापना करके चुनाव में उतरना तय किया। किंतु उस समय के कुछ मराठा विद्वानों ने कहा कि जाति की राजनीति से तुम चुनकर नहीं आ सकते, उस समय के मराठा लोग विद्वानों की बातों को मानते थे इसलिए मराठों ने जाति से बाहर निकलकर सत्यशोधक व बहुजन बनकर व्यापक राजनीति की व सत्ताधारी बने।
आज के मराठे विद्वानों की बात नहीं सुनते, जाति की ही राजनीति करते हैं इसीलिए आज उन्हें फडणवीस पेशवा के नियंत्रण में काम करने को मजबूर होना पड़ा है, जो जाति अपनी ही जाति के विद्वानों की बात नहीं मानती वह जाति गड्ढे में गिरने से नहीं रुक सकती।
ऐसा इतिहास है।
आज माली समाज तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले का विचार नहीं मानता, तात्या साहेब का सिर्फ फोटो लगाता है इसलिए कम शिक्षित अभ्यास न किए हुए लोग चुनकर आते हैं और वे ही विद्वान बनकर मार्गदर्शन करते हैं सच्चे विद्वान लोग अलग थलग पड़े रहते हैं। आज सभी ओबीसी जातियां अधिकाधिक गड्ढे में जा रही हैं इस गड्ढे से बाहर निकलने के लिए तुम्हें फुले अंबेडकरवादी विद्वान ही उपयोगी सिद्ध होंगे, अभ्यास न किए हुए व मराठा – ब्राह्मणों की पार्टियों की गुलामी करने वाले सांसद विधायक तुम्हें और गड्ढे में डालेंगे और ऊपर से जाति की मिट्टी डालेंगे। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को गटर कहा था,*जाति के गटर में सूअर के जैसे लोटते मत पड़े रहो! माली माली मत करो! जाति के बाहर निकलो व ओबीसी बनो!कल के सत्ताधारी तुम्हीं बनोगे!
जय ज्योति, जय भीम! सत्य की जय हो!

लेखक -प्रो. श्रावण देवरे
8830127270

मराठी से हिंदी अनुवाद
चन्द्र भान पाल
7208217141

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Chief Editor

भाग्यवंत लक्ष्मणराव नायकुडे Chief Editor Bhagywant Laxmanrao Naykude. Akluj, Taluka Malshiras, District Solapur. Maharashtra state, India. Mo. 98 60 95 97 64

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